Scientific Cultivation of Rice in Chhattisgarh (Hindi)


Scientific Cultivation of Rice in Chhattisgarh (Hindi) 

(छत्तीसगढ़ में चावल की वैज्ञानिक खेती )

भूमि का चयन-(Selection of Land)

1) धान की खेती के लिए भारी दोमट भूमि सर्वोत्तम पाई गई है. इसकी खेती हल्की अम्लीय मृदा से लेकर क्षारीय (पीएच 4.5 से 8.0 तक) मृदा में की जा सकती है.

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2) छत्तीसगढ़ में मुख्यतः चार प्रकार की भूमि भाटा, मटासी, डोरसा, एंव कन्हार पाई जाती है.

3) मटासी भूमि भाटा से अधिक भारी तथा डोरसा भूमि से हल्की होती है तथा धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है. डोरसा भूमि रंग तथा गुणों के आधार पर मटासी तथा कन्हार भूमि के बीच की श्रेणी में आती है. इसकी जलधारणा क्षमता मटासी भूमि की तुलना में काफी अधिक होती है. धान की कास्त के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है.
4) कन्हार भूमि भारी, गहरी व काली होती है. इसकी जल धारण क्षमता अन्य भूमि की अपेक्षा सर्वाधिक होती है तथा कन्हार भूमि रबी फसलों के लिए उपयोगी होती है. छत्तीसगढ़ राज्य में लगभग 77 प्रतिशत धान की खेती असिंचित अवस्था (वर्षा आधारित) में की जाती है.

खेत की तैयारी-( Preparation of Land )

ऋगवेद में कहा गया है कि-
“यो ना बपतेह बीजम”
अर्थात तैयार किये गये खेत में ही बीज बोना चाहिए, जिससे कि भरपूर अन्न पैदा हो.

फसल उगाने से पहले विभिन्न यंत्रों की सहायता से खेत की अच्छी तरह से तैयार किया जाता है  जिससे खेत खरपतवार रहित हो जाएँ. धान के खेत की तैयारी शुष्क एंव आर्द्र प्रणाली द्वारा बोने की विधि पर निर्भर करती है.

शुष्क प्रणाली में खेत की तैयारी के लिए फसल के तुरन्त बाद ही खेत को मिट्टि पलटने वाले हल से जोत देते हैं. इसके बाद पानी बरसने पर जुताई करते हैं. इस प्रकार भूमि की भौतिक दशा धान के योग्य बन जाती है. गोबर की खाद, कम्पोस्ट या हरी खाद बोआई से पहले प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए.

बोआई या रोपाई सही समय (Sowing and Transpanting Time)

1) वर्षा प्रारंभ होते ही बोवाई का कार्य प्रारम्भ का देना चाहिये. जून मध्य जुलाई प्रथम सप्ताह तक का समय धान की बोनी के लिए सबसे उपयुक्त रहता है.

2) बोआई में देरी से कीट व्याधियों का प्रकोप व उपज में गिरावट आती है.

3) रोपाई हेतु नर्सरी में बीज की बोआई सिंचाई उपलब्ध होने पर जून के प्रथम सप्ताह में ही कर देना चाहिये क्योंकि जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई मध्य तक की रोपाई से अच्छी उपज प्राप्त होती है.
4) लेही विधि से धान के अंकुरण हेतु 6-7 दिन का समय बच जाता है अतः देरी होने पर लेही विधि से बोनी की जा सकती है.

बीज की मात्रा-(Seed Rate)

1) अच्छी उपज के लिए खेत और बीज दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है. चयनित किस्मों का प्रमाणित बीज किसी विश्वसनीय संस्था से प्राप्त करें.
2) बीज में अंकुरण 80-90 प्रतिशत होना चाहिये और वह रोग रहित हो. इस तरह से छाँटा हुआ बीज

3) रोपा पद्धति में 30-40,किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर
4) छिड़का एंव बियासी विधि हेतु 100-120 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर
5) कतार बोनी में 90-100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर
6) लेही पद्धति में 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग किया जाता है.
7) प्रमाणित किस्म के बीज का प्रयोग करने पर नमक के घोल से उपचार करने की आवश्यकता नहीं होती हैै.

धान की खेती की पद्धतियाँ-(Systems of Rice Cultivation)

धान के लगभग 25 प्रतिशत क्षेत्र में सुनिश्चित सिंचाई की उपलब्धता है तथा लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र जल-मग्न (जल निकास की सुविधा न होना) एंव शेष भाग में खेती वर्षाधीन है जो उपरभूमि धान के अन्तर्गत आता है. आमतौर पर धान की प्रमुख पद्धतियाँ अग्रानुसार है.

क) ऊँची मृदाओं में खेती इसमें धान की बुआई (upland Cultivation)

1. छिटकवाँ बोवाई
2. पंक्तियों में बोवाई हल की पीछे या ड्रिल से की जाती है.
3. बियासी पद्धति: छिटकवाँ विधि से बीज बोकर लगभग एक माह की फसल अवस्था में पानी भरे खेत में हल्की जुताई की जाती है.

(ख) निचली मृदाओं में खेती (Low Land Cultivation)

1. लेह युक्त मृदाओं में खेती: इसमें बुआई दो विधियों से करते हैं-
• (अ) लेही पद्धति: धान के बीज को अंकुरित  करके मचाये हुये खेत में सीधे छिटकवाँ विधि से बोवाई और
• (ब) रोपाई पद्धति: नर्सरी में पौधे तैयार करके लगभग एक माह बाद खेत मचाने के बाद कतार में पौधे रोपे जाते हैं.
2. लेह रहित मृदाओं में खेती: इसमें बुआई पंक्तियों में अथवा छिटकवाँ विधि (बियासी) से की जाती हैं.

उन्नत खुर्रा बोनी;

अनियमित एंव अनिश्चित वर्षा के कारण किसी-न-किसी अवस्था में प्रत्येक वर्ष धान की फसल सूखा से प्रभावित हो जाती है. अतः उपलब्ध वर्षा जल की प्रत्येक बूँद का फसल उत्पादन में समुचित उपयोग आवश्यक हो गाया है, तभी सूखे से फसल को बचाया जा सकता है. उन्नत खुर्रा बोनी में अकरस जुताई, देशी हल या टैक्ट्रर द्वारा की जाती है. जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित (नारी हल) या टैक्ट्रर चलित सीड ड्रील द्वारा 20 से.मी कतार-से कतार की दूरी पर धान बोया जाता है.नींदा नियंत्रण के लिए अंकुरण के पूर्व ब्यूटाक्लोर या अन्य नींदानाशक का छिड़काव किया जाता है.

बियासी विधि- ( Biasi Method)

प्रदेश में लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में धान की बुवाई बियासी विधि से की जाती है. इसमें वर्षा आरंभ होने पर जुताई कर खेत में धान के बीज को छिड़क कर देशी हल अथवा हल्का पाटा चलाया जाता है. जब फसल करीब 30-40 दिन की हो जाती है तथा खेतों में 8-10सेमी. पानी भर जाता है तब खड़ी फसल में देशी हल चलाकार बियासी करते हैं. बियासी करने के बाद चलाई समान रूप से करना चाहिए. इस विधि से भरपूर उपज लेने के लिए निम्न बातें ध्यान में रखना चाहिए:
1 खेत में जुताई के बाद उपचारित बीज की बोनी करें तथा दतारी हल चलाकर मिट्टि में हल्के से मिला दें जिससे बीज अधिक गहराई पर न जावे एंव अंकुरण भी अच्छी और एक साथ हो सके.
2. स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की 20 प्रतिशत मात्र बोने के समय डालें.
3. नत्रजन की बाकी मात्रा 40 प्रतिशत बियासी के समय, 20 प्रतिशत बियासी के 20-25 दिन एंव शेष 20 प्रतिशत मात्रा बियासी के 40-50 दिन बाद डालें.
4. पानी उपलब्ध होने पर बुवाई के 30-40 दिनों के अंदर बियासी करना चाहिए तथा चलाई बियासी के बाद 3 दिन के अंदर संपन्न करें.
5. बियासी करने के लिए सँकरे फाल वाले देशी हल या लोहिया हल का उपयोग करें ताकि बियासी करते समय धान के पौधों को कम-से कम क्षति पहुँचे.
6. सघन चलाई: धान की खड़ी फसल में बियासी करने से धान के बहुत से पौधे मर जाते हैं, जिससे प्रति इकाई पौधों की संख्या कम रह जाती है. जबकि अधिकतम उत्पादन के लिए

नर्सरी की तैयारी और प्रबंधन; ( Nursery Management)

(क) पौधशाला का क्षेत्रफल:- धान की  नर्सरी ऐसी भूमि में तैयार करनी चाहिए जो उपजाऊ, अच्छे जल निकास वाली व जल स्त्रोत के पास हो। एक हैक्टेयर क्षेत्रफल में धान (चावल) की रोपाई के लिए 1/10 हैक्टेयर (1000 वर्ग मीटर) क्षेत्रफल में पौध तैयार करना पर्याप्त होता है।
(ख) नर्सरी की बुआई का समय – धान (चावल) की नर्सरी की बुवाई का सही समय वैसे तो विभिन्न किस्मों पर निर्भर करता है, लेकिन 15 मई से लेकर 20 जून तक का समय बुआई के लिए उपयुक्त पाया गया है।
(ग) नर्सरी बोने की विधि: धान (चावल) नर्सरी भीगी विधि से पौध तैयार करने का तरीका उत्तरी भारत मेंअधिक प्रचलित है। इसके लिए खेत में पानी भरकर 2-3 बार जुताई करते है ताकि मिट्टी लेहयुक्त हो जाए तथा खरपतवार नष्ट हो जाएं। आखिरी जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को समलत कर सुखा लिया जाये। सतह पर पानी सुखने पर खेत को 1.25 से 1.50 मीटर चैड़ी तथा सुविधाजनक लंबी क्यारियों में बां ट लें ताकि बुआई,निराई और सिंचाई की विभिन्न सस्य क्रियाएं आसानी से की जा सकें। क्यारियां बनाने के बाद पौधशाला में 5सें.मी. ऊंचाई तक पानी भर दें और अंकुरित बीजों को समान रूप से क्यारियों में बिखेर दें। अगले दिन सुबह खड़ा पानी निकाल दें और एक दिन बाद ताजे पानी से सिंचाई करें। यह प्रक्रिया 6-7 दिनों तक दोहराएं। इसके बाद खेत में लगातार पानी रखें, परंतु इस बात का ध्यान रखें कि किसी भी अवस्था में पौध पानी में डूबे नहीं।

धान की रोपाई; (Transplanting of Rice)

रोपाई के लिए पौध की उम्र: सामान्यतः जब पौध 25-30 दिन पुरानी हो जाए तथा उसमें 5-6 पत्तियां निकल जाए तो यह रोपाई के लिए उपयुक्त होती है। यदि पौध की उम्र ज्यादा होगी तो रोपाई के बाद कल्ले कम फूटते है और उपज में कमी आती है और यदि पौध की उम्र 35 दिन से अधिक हो गई हो तो उसका उपयोग रोपाई के लिए नहीं करना चाहिए।

पौध की रोपाई  विधि;( Method of Transplanting)

1) रोपाई के लिए पौध उखाड़ने से एक दिन पहले नर्सरी में पानी भर दे और पौध उखाड़ते समय सावधानी रखें। पौधों की जड़ों को धोते समय नुकसान न होने दें तथा पौधों को काफी नीचे से पकड़ें। 
2) पौध की रोपाई पंक्तियों में करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सें.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. रखनी चाहिए। एक स्थान पर 2 से 3 पौधे ही लगाएं। इस प्रकार एक वर्गमीटर में लगभग 50 पौधे ही होने चाहिए।
खाद और उर्वरकों की मात्रा व प्रयोग: (Manure and Fertilizers)
1) अधिक उपज और भूमि की उर्वरता शक्ति बनाये रखने के लिए हरी खाद या गोबर या कम्पोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। हरी खाद हेतु सनई या ढँचे का प्रयोग किया गया हो तो नाइट्रोजन की मात्रा कम की जा सकती है, क्योंकि सनई या ढँचें से लगभग 50-60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त होती है।
2) उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।
धान (चावल) की बौनी किस्मों के लिए120 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, 40 कि.ग्रा. पोटाश और 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए।
3) बासमती किस्मों के लिए 100-120 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50-60 किग्रा. फास्फोरस, 40-50 कि.ग्रा. पोटाश और 20-25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर देना चाहिए।
4) जबकि संकर धान (चावल) के लिए 130-140 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60-70 कि.ग्रा. फास्फोरस, 50-60 किग्रा. पोटाश, 25-30 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर देना चाहिए। यूरिया की पहली तिहाई मात्रा का प्रयोग रोपाई के 5-8 दिन बाद दी जानी चाहिए।
5) जब पौधे अच्छी तरह से जड पकड़ लें। दूसरी एक तिहाई यूरिया की मात्रा कल्ले फूटते समय (रोपाई के 25-30 दिन बाद) तथा शेष एक तिहाई हिस्सा फूल आने से पहले (रोपाई के 50-60 दिन बाद) खड़ी फसल में छिड़काव करके की जानी चाहिए।
6) फास्फोरस की पूरी मात्रा सिंगल सुपर फास्फेट या डाई अमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.) के द्वारा, पोटाश की भी पूरी मात्रा, म्यूरेट आफ पोटाश के माध्यम से और जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा धान (चावल) की रोपाई करने से पहले अच्छी तरह मिट्टी में मिला देनी चाहिए। 
7) यदि किसी कारणवश पौध रोपते समय जिंक सल्फेट उर्वरक खाद न डाला गया हो तो इसका छिड़काव भी किया जा सकता है। इसके लिए 15-15 दिनों के अंतराल पर 3 छिड़काव 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट $2.5 प्रतिशत यूरिया के घोल के साथ करना चाहिए। पहला छिड़काव रोपाई के एक महीने बाद किया जा सकता है।

नील हरित शैवाल का प्रयोग; ( Uses of Blue Green algee)

नील हरित शैवाल का प्रयोग करने से नाइट्रोजन की मात्रा में लगभग 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से कमी कर सकते है नील हरित शैवाल के प्रयोग के लिए 10-15 कि.ग्रा. टीका (मृदा आधारित) रोपाई के एक सप्ताह के बाद खड़े पानी में प्रति हैक्टेयर की दर से बिखेर दिया जाता है। शैवाल का प्रयोग कम से कम तीन साल तक लगातार किया जाना चाहिए। इससे अच्छे परिणाम प्राप्त होते है। मृदा आधारित टीका जिसमें शैवाल के बीजाणु होते है, 10 रूपये प्रति कि.ग्रा. की दर से खरीद सकते है। अगर नील हरित शैवाल का प्रयोग कर रहे हैं, तो इस बात का विशेष ध्यान रखें कि खेत में पानी सूखने नहीं पाए अन्यथा शैवाल जमीन में चिपक जाते हैं और उनकी नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता में कमी जा जाती है।

सिंचाई और जल प्रबंधन; (Irrigation Management)

धान (चावल) की फसल के लिए पानी नितांत आवश्यक है परंतु फसल में अधिक पानी भरा रहना आवश्यक नहीं है। रोपाई के 2-3 सप्ताह तक 5-6 से.मी. पानी बराबर खेत में रखना चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार खेत में पानी भरा रहना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रहे कि फुटाव से लेकर दाने भरने तक खेत में नमी की कमी न होने पाये तथा भूमि में दरार न पड़ने पाए, अन्यथा पैदावार में भारी कमी हो सकती है।
खरपतवार नियंत्रण ( Weed Management )
रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। धान (चावल) के खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए कुछ शाकनाशियो का उल्लेख सारणी में किया गया है। शाकनाशियों के प्रयोग करने की विधि;
1. खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 600 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करना चाहिए।
2. रोपाई वाले धान (चावल) में खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 60 कि.ग्रा. सूखी रेत में अच्छी तरह मिलाकर रोपाई के 2-3 दिन के बाद 4-5 से.मी. पानी में समान रूप से बिखेर देना चाहिए।

खरपतवारनाशी रसायन के उपयोग सम्बंधित सावधानियाँ

1. प्रत्येक खरपतवारनाशी रसायन के उपयोग से पहले डिब्बे पर लिखे गए निर्देशों तथा उसके साथ दिए गए पर्चे को ध्यानपूर्वक पढ़े तथा उसमें बताए गए तरीके का विधिवत पालन करें।
2. शाकनाशी रसायनों की पर्याप्त मात्रा का उचित समय पर छिड़काव करें।
3. पानी का उचित मात्रा में प्रयोग करें।
4. शाकनाशी और पानी के घोल को छानकर ही स्प्रे मशीन में भरना चाहिए।
5. शाकनाशी का पूरे खेत में समान रूप से छिड़काव करें।
6. छिड़काव करते समय मौसम साफ होना चाहिए तथा हवा की गति तेज नही होनी चाहिए।
7. छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।

रसायनिक खरपतबार नियंत्रण. (Chemical weed Control)

• प्री एमेर्जेंस -( Pre-emergence)
पायरोजोसुल्फुरोन एथिल (pyrazosulfuron ethyl )
10 % WP 150 ग्राम प्रति हैक्टर रोपाई के 3 दिन बाद या ब्यूटाक्लोर (butachlor )1-2 kg /हैक्टर पहली वीडिंग के बाद 30 से 35 दिन पर प्रयोग करे I

• पोस्ट एमेर्जेंस -( Post-emerence)
जब खरपतवार दो से तीन पत्ती की अवस्था में दिखे उस समय बिसपायरीबैक सोडियम (Bispyribac sodium 10% SC )
50 ग्राम a.i. प्रति हैक्टर का प्रयोग करे .

धान के  प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम ( Disease Manegement)
1) ब्लास्ट या झुलसा रोग:- (Rice Blast)

यह रोग फफूंद से फैलता है। पौधे के सभी भाग इस बीमारी द्वारा प्रभावित होते है। प्रारम्भिक अवस्था में यह रोग पत्तियों पर धब्बे के रूप में दिखाई देता है। इनके धब्बों के किनारे कत्थई रंग के तथा बीच वाला भाग राख के रंग का होता है। रोग के तेजी से आक्रमण होने पर बाली का आधार से मुड़कर लटक जाना। फलतः दाने का भराव भी पूरा नहीं हो पाता है।
नियत्रंण:-
(1) उपचारित बीज ही बोयें,
(2) जुलाईके प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी कर लें। देर से रोपाई करने पर झुलसा रोग के लगने की संभावना बढ़ जाती है,
(3) यदि पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगे तो कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर में छिड़काव करं I या मेटोमीयनोस्ट्रोबिन (metominostrobin )20 SC की दर से 500 मि ली प्रति हैक्टर की दर से छिड़काउ करे इस तरह इन दवाओं का छिड़काव 2-3 बार 10 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार किया जा सकता है,

(4) संवेदनशील किस्मों में बीमारी आने पर नाइट्रोजन का कम प्रयोग करें 
(5) रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को कटाई के बाद जला देना  चाहिए।
2) पत्ती का झुलसा रोग:- (Rice Blight)

यह बीमारी जीवाणु के द्वारा होती है। पौधों में यह रोग छोटी अवस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक कभी भी हो सकता है। इस रोग में पत्तियों के किनारे ऊपरी भाग से शुरू होकर मध्य भाग तक सूखने लगते है। सूखे पीले पत्तों के साथ-साथ राख के रंग जैसे धब्बे भी दिखाई देते है। पूरी फसल झुलसी प्रतीत होती है। इसलिए इसे झुलसा रोग कहा गया है।
नियंत्रण:-
(1) इसके नियंत्रण के लिए नाइट्रोजन की टाॅपड्रेसिंग नहीं करनी चाहिए।
(2) पानी निकालकर प्रति हैक्टेयर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 15 ग्राम या 500 ग्राम काॅपर ऑक्सीक्लोराइड जैसे ब्लाइटाक्स 50 या फाइटेलान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिन के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करने चाहिए,
(3) जिस खेत में रोग के लक्षण हो उसका पानी दूसरे खेत में न जाने दें। इससे बीमारी के फैलने की आशंका रहती है।
3) गुतान झुलसा (शीथ ब्लाइट):- ( Rice Sheath Blight)

यह बीमारी भी फफूंद द्वारा फैलती है। इसके प्रकोप से पत्ती के शीश (गुतान) पर 2-3 से.मी. लंबे हरे से भूरे धब्बे पड़ते है जो धीरे-धीरे भूरे रंग में बदल जाते है। धब्बों के चारों तरफ नीले रंग की पतली धारी-सी बन जाती है।
नियंत्रण:-
इस बीमारी की रोकथाम के लिए निम्नलिखित दवाओं का छिड़काव करें-
(1) कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम दवा 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें,
(2) हेक्साकॉन्ज़ोल 75% WG. 1000 ऍम जी प्रति लीटर पानी में घोल के बीमारी के लक्षण दिखने पर पहला स्प्रे करे तथा दूसरा स्प्रे १५ दिनों के अंतराल पर करें

(3) अगर बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो नाइट्रोजन का छिड़काव कम करे दें।
4) खैरा रोग:- ( Khaira Disease)

रोग यह बीमारी धान (चावल) में जस्ते की कमी के काण होती है। इसके लगने पर निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवा धब्बे उभरने लगते है। रोग की तीव्र अवस्था में रोग ग्रसित पत्तियां सूखने लगती है। कल्ले कम निकलते है और पौधों की वृद्धि रूक जाती है।
नियंत्रण:-
(1) यह बीमारी न लगे इसके लिए 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए। 

(2) बीमारी लगने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोल बनाकर एक हैक्टेयर में छिड़काव करंे। 
3) अगर रोकथाम न हो तो 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करें। पौधशाला में खैरा के लक्षण प्रकट होने पर इसी घोल का छिड़काव करना चाहिए।
5) टुंग्रो विषाणु रोग:- ( Tungro Virus of Rice)

टुंग्रो यह रोग हरे फुदके कीट के माध्यम से फैलता है। यदि रोग का प्रकोप प्रारंभिक अवस्था यानी 60 दिन में पूर्ण होता है इससे पौधे रोग के कारण बौने रह जाते है, कल्ले भी कम बनते है, पत्तियों का रंग सतंरे के रंग समान या भूरा हो जाता है। रोगग्रस्त पौधों में बालियां देर से बनती है, जिनमें दाने या तो पड़ते ही नहीं और यदि पड़ते है तो बहुत हल्कें।
नियंत्रण:-
(1) इस बीमारी की रोकथाम के लिए जेसे ही खेत में एक-दो रोगी पौधे दिखाई दें, वैस ही उन्हें खेत से बाहर निकाल देना चाहिए, 

(2) रोपाई से पूर्व पौध की जड़ों को 0.62 प्रतिशत क्लोरोपायरीफाॅस घोल में डुबाना चाहिए, 
(3) कल्ले बनते समय तथा बालिया आने पर 8-10 कीट प्रति हिल दिखाई देने पर कार्बोफ्यूरान 3 जी प्रति हैक्टेयर 20 कि.ग्रा. की दर से 3-5 से.मी. पानी में प्रयोग करना चाहिए।

धान (चावल) के प्रमुख कीट और नियंत्रण;( Pest Management)

1) तना छेदक :- ( Stem Borer of Rice)

स्टेम बोररछेदक यह धारीदार गुलाबी, पीले या सफेद रंग का होता है। इस कीड़े की सूंडी नुकसान पहुंचाती है। फसल की प्रारभिक अवस्था में इसके प्रकोप से पौधों का मुख्य तना सूख जाता है, इसे ‘डैड हर्ट’ कहते है।
नियंत्रण:-
(1) इसके नियंतरण के लिए कार्टाप 4G 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर अथवा फीफरोनिल .3G 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर या क्लोरपैरिफोस 10G 10 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करे . ।
(2) तना छेदक कीड़े की सूंडी के अगले साल फैलने से रोकने के लिए धान (चावल) की जड़ों को जलाकर समाप्त कर दें या गहरी जुताई करके नष्ट करे दें,
(3) तना छेदक कीड़े को लाइट ट्रेप से पकड़कर समाप्त कर सकते है।



2) पत्ती लपेट कीड़ा (लीफ फोल्डर):- ( Leaf Folder)

इस कीड़े की सूंडी पौधों की कोमल पत्तियों के सिर की तरफ से लपेटकर सुरंग-सी बना लेती है और उसके अंदर-अंदर खाती रहती है। फलस्वरूप पौधों की पत्तियोें का रंग उड़ जाता है और पत्तियां सिर की तरफ से सूख जाती है। अधिक नुकसान होने पर फसल सफेद और जली-सी दिखाई देने लगती है। अगस्त से लेकर अक्टूबर तक इसके द्वारा नुकसान होता है।
नियंत्रण:-
(1) कीड़ों को लाइट ट्रेप पर इकठ्ठा करके मार सकते है।
(2) इसके नियंतरण के लिए क्लोरपैरिफोस 20EC 1250 मिलीलीटर प्रति हैक्टर या फिप्रोनिल 80% WG 50 से 62.5 मिलीलीटर प्रति हैक्टर या एसीफेट 75% SP 1000 मिलीलीटर प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करे I3) धान (चावल) का गंधी कीड़ा:- ( Rice Gundhibug)

गंध्इस कीड़े के प्रौढ़ व निम्फ दोनों दूधिया दानों और पत्तियों का रस चूसते है। फलस्वरूप दाना आंशिक रूप से भरता है या खोखला रह जाता है। इस कीड़े को छूने से या छेड़ने से बहुत तीखी गंध निकलती है। इसी कारण इसे गंधी बग भी कहते है।
नियंत्रण:-
इस कीडे़ की रोकथाम के लिए फाॅलीडाल या मैलाथियान पाउडर का 30 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें या इण्डोसल्फाॅन 35 ई.सी. की 1.2 लीटर वा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें।



4) मधुवा या फुदके (हापर): ( Rice Hopper)


ये कीड़े बहुत छोटे आकार के और भूरे रंगे के होते हैं जो कि पौध् की नीचली सतह पर कल्लों के बीच में पाए जाते हैं और तने और पत्तियों का रस चूसते हैं। इसके प्रकोप से हरी-भरी दिखने वाली फसल अचानक झुलस जाती है। झुलसे हुए हिस्से को ‘होपर बर्न’ कहते है।
नियंत्रण:-
इसके नियंतरण के लिए बूप्रोफेज़िन 25EC 800 मिलीलीटर प्रति हैक्टर या कार्बोसल्फुरोन 25EC 800 – 1000 मिलीलीटर प्रति हैक्टर या डिक्लोरवास 76%SC 470 मिलीलीटर प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करे I
चूहों का नियंत्रण; ( Rat Control in Rice Crop)

धान (चावल) की फसल में चूहे भी बहुत नुकसान पहुंचाते है। चूहों का नियंत्रण एक सामूहिक कार्य है। एकाकी नियंत्रण अप्रभावी होता है। इनके नियत्रंण के लिए सभी उपलब्ध विधियों जैसे चूहों के फंदे, विषयुक्त खाद्य, साइनों गैस उपयोग में लाना इत्यादी। विषयुक्त खाद्य के सही उपयोग के लिए पहले दिन विषरहित खाद्य देना चाहिए। दूसरे दिन 19 भाग मक्का, गेहूं, चावल, एक भाग रेटाफिन या रोडाफिन का तेल व चीनी के साथ मिलाकर देना चाहिए। एक खाद्य एक सप्ताह तक देने के बाद जिंक फास्फाइड मिला हुआ खाद्य 95 भाग (भार से) ज्वार के दाने, 2.5 भाग जिंक फास्फाइड तथा उतना ही भाग सरसों का तेल मिलाकर देना चाहिए। मरे हुए चूहों को जमीन में दबा देना चाहिए।
कटाई और मड़ाई ( Rice Harvesting and Threshing)
बालियों निकलने के लगभग एक माह बाद सभी किस्में पक जाती है। कटाई के लिए जब 80 प्रतिशत बालियों में 80 प्रतिशत दाने पक जाएं और उनमें नमी 20 प्रतिशत हो, वह समय कटाई के लिए उपर्युक्त होता है। कटाई दरांती से जमीन की सतह पर व ऊपर भूमियों में भूमि की सतह से 15-20 से.मी. ऊपर से करनी चाहिए। मड़ाई साधारणतया हाथ से पीटकर की जाती है। शक्ति चालित थ्रेसर का उपयोग भी बड़े किसान मड़ाई के लिए करते है। कम्बाईन के द्वारा कटाई और मड़ाई का कार्य एक साथ हो जाता है। मड़ाई के बाद दानों की सफाई कर लेते है। सफाई के बाद धान (चावल) के दानों को अच्छी तरह सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिए। भण्डारण से पूर्व दानों को 12 प्रतिशत नमी तक सुखा लेते है।

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